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आदिवासियों के ‘धरती आबा’ जिनकी दहाड़ से अंग्रेज भी खाते थे खौफ, जानिए उनका शौर्य गाथा!

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Birsa Munda 150th Birth Anniversary: 15 नवंबर का दिन भारतीय इतिहास में एक ऐसे महानायक के नाम दर्ज है, जिसने महज़ 25 साल की छोटी उम्र में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी थी. हम बात कर रहे हैं आदिवासियों के भगवान माने जाने वाले बिरसा मुंडा की, जिनकी आज 150वीं जयंती है.

इस विशेष अवसर पर पीएम मोदी ने उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की. पीएम मोदी गुजरात के नर्मदा जिले में याहामोगी देवमोगरा धाम में कुलदेवी पंडोरी माता की पूजा करने पहुंचे हैं. यह वही क्षेत्र है जहां जनजातीय समुदाय बिरसा मुंडा को अपनी आस्था और संघर्ष का प्रतीक मानता है.

केंद्र सरकार ने बिरसा मुंडा के सम्मान में 15 नवंबर को ‘जनजातीय गौरव दिवस’ के रूप में मनाने की घोषणा की है. इस साल राष्ट्रीय स्तर का मुख्य कार्यक्रम गुजरात के नर्मदा जिले के डेडियापाड़ा में आयोजित किया जा रहा है. नर्मदा जिले का यह क्षेत्र, जहां पीएम पूजा-अर्चना कर रहे हैं, स्वयंभू याहा पंडोरी देवमोगरा माता का धाम है. यह देवी गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान के आदिवासी समुदायों के लिए कुलदेवी हैं.

क्यों हुआ था पहला महासंग्राम?
बिरसा मुंडा की कहानी 1857 की क्रांति के बाद अंग्रेजों के खिलाफ आदिवासियों के पहले बड़े महासंग्राम यानी ‘उलगुलान’ से शुरू होती है. 1789 से 1820 के बीच, छोटानागपुर क्षेत्र के मुंडा आदिवासियों में विद्रोह की आग सुलग रही थी, जिसका मुख्य कारण था ‘खुंटकट्टी व्यवस्था’ पर अंग्रेजों की चोट.

खुंटकट्टी व्यवस्था मुंडाओं की वह पारंपरिक संस्था थी, जिसके तहत एक ही किल्ली यानी कुल के सभी परिवार मिलकर जंगल साफ करके जमीन को खेती योग्य बनाते थे और उस पर सामूहिक अधिकार रखते थे. अंग्रेजों ने इस पारंपरिक स्वामित्व को खत्म करने की दमनकारी नीतियां लागू कीं. उनकी ‘बांटो और राज करो’ की नीति ने आदिवासियों को ज़मीन और जंगल से बेदखल करना शुरू कर दिया, जिससे नफरत और आक्रोश बढ़ता गया.

स्कूल से निकाले गए बिरसा
1875 में उलिहातू गांव में सुगना मुंडा और कर्मी मुंडा के घर जन्मे बिरसा का बचपन संघर्षों में बीता. शुरुआती दौर में उनके परिवार ने ईसाई धर्म अपना लिया था. उन्होंने मिशनरी स्कूल में पढ़ाई की, लेकिन जल्द ही उनका मोहभंग हो गया.

बिरसा ने पहचान लिया कि ईसाई मिशनरियां भी आदिवासियों की जमीनों पर कब्ज़ा करने की साज़िश में शामिल हैं. मिशनरियों की आलोचना करने पर उन्हें स्कूल से निकाल दिया गया. युवा बिरसा ने इसके बाद सरदार आंदोलन में हिस्सा लिया और नारा दिया, “साहब-साहब एक टोपी है.” इसका अर्थ था कि सभी गोरे एक जैसे हैं और सब सत्ता की टोपी पहने हुए हैं.

जब बिरसा बन गए ‘धरती आबा’
साल 1891 से 1896 के बीच बिरसा ने ईसाई धर्म छोड़कर, धर्म, दर्शन और नीति का गहन ज्ञान प्राप्त किया. उन्होंने आंदोलन के साथ-साथ उपदेश देना भी शुरू किया, जिससे बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयायी बन गए. उनकी लोकप्रियता इतनी बढ़ गई कि लोग उन्हें ईश्वर का दूत और भगवान मानने लगे. उनके अनुयायी ‘बिरसाइत’ कहलाए. इस तरह, बिरसा मुंडा आदिवासियों के बीच ‘धरती आबा’ के रूप में पूजे जाने लगे.

महाविद्रोह की घोषणा
अगस्त 1895 में वन संबंधी बकाये की माफी के लिए बिरसा ने चाईबासा तक यात्रा की, लेकिन अंग्रेजी हुकूमत ने उनकी मांग ठुकरा दी. इस अपमान के बाद बिरसा ने वह ऐतिहासिक ऐलान किया जिसने क्रांति की शुरुआत की, “सरकार खत्म. अब जंगल-जमीन पर आदिवासियों का राज होगा.” उन्होंने बुलंद आवाज़ में नारा दिया, “अबुआ दिसुम, अबुआ राज” जिसका मतलब है, “हमारे देश पर हमारा राज होगा.” यह नारा अंग्रेज़ों के लिए सबसे बड़ी चुनौती बन गया.

गिरफ्तारी और जेल से रिहाई
बिरसा की बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर अंग्रेज़ी हुकूमत ने उन्हें गिरफ्तार करने की कई बार कोशिश की. आखिरकार, 24 अगस्त 1895 को पुलिस अधीक्षक मेयर्स के नेतृत्व में पुलिस ने रात में बिरसा को गिरफ्तार कर लिया. उन्हें रांची जेल ले जाया गया और बाद में हजारीबाग जेल भेजा गया. उन पर ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ लोगों को भड़काने का आरोप लगा और उन्हें 2 साल की सज़ा सुनाई गई.

1897 में झारखंड में भयानक अकाल और चेचक की महामारी फैली. इसी दौरान, ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया की डायमंड जुबिली के समारोहों का आयोजन हो रहा था. इस अवसर पर देश के कई आंदोलनकारियों के साथ बिरसा मुंडा को भी रिहा कर दिया गया.

30 नवंबर, 1897 को जेल से छूटने के बाद बिरसा सीधे चलकद लौटे. उन्होंने सबसे पहले अकाल और महामारी से पीड़ित लोगों की सेवा शुरू की. इसके साथ ही, वह गुप्त रूप से राजनीतिक सभाएं करने लगे, जिससे एक नए और बड़े आंदोलन की जमीन तैयार होने लगी.

जब बिरसा ने छेड़ा हथियारबंद संघर्ष
अंग्रेज़ सरकार समझ चुकी थी कि बिरसा मुंडा को रोकना आसान नहीं है. जनवरी 1900 में, पुलिस और सेना ने बिरसा की तलाश में पोड़ाहाट के जंगलों तक को छान मारा. सरकार ने बिरसा की सूचना देने वाले के लिए इनाम घोषित कर दिया, लेकिन आदिवासियों ने अपने ‘भगवान’ के बारे में एक शब्द भी नहीं बताया.

इसके बाद बिरसा ने सीधे हथियारबंद संघर्ष का ऐलान कर दिया. यह इतिहास में उलगुलान के नाम से दर्ज हुआ. बिरसा की अगुवाई में लगभग 60 जत्थों ने एकसाथ हुकूमत के ठिकानों, सरकारी कार्यालयों और गिरजाघरों पर धावा बोल दिया. चक्रधरपुर और पोड़ाहाट जैसे इलाकों में अंग्रेज़ों के आवासों में आग लगा दी गई.

इस महासंग्राम का सबसे भीषण रूप 8 जनवरी, 1900 को डोम्बारी पहाड़ियों पर दिखा. सेना ने बिरसाइत जत्थों को चारों ओर से घेर लिया. विद्रोहियों ने ज़ोरदार दहाड़ लगाई, “गोरो, अपने देश वापस जाओ.” फौज और विद्रोहियों के बीच हुई इस खूनी जंग में लगभग 200 मुंडा शहीद हो गए, लेकिन बिरसा अंग्रेजों के हाथ नहीं आए.

जेल में रहस्यमयी मौत
अंग्रेज़ी हुकूमत के लिए बिरसा मुंडा को पकड़ना इज़्ज़त का सवाल बन गया था. आखिरकार, 3 फरवरी, 1900 को एक जंगल में बने शिविर में सोते वक्त अंग्रेज़ों ने बिरसा को पकड़ लिया. उन्हें तत्काल खूंटी के रास्ते रांची कारागार में बंद कर दिया गया. बिरसा के साथ ही करीब 500 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया.

मुकदमे की सुनवाई चल रही थी. 20 मई, 1900 को बिरसा को कोर्ट ले जाया गया, लेकिन तबीयत खराब होने की वजह से उन्हें वापस जेल भेज दिया गया. अगले 10 दिन तक यही खबर आती रही कि बिरसा बीमार हैं. और फिर, 9 जून, 1900 की सुबह अचानक यह खबर आई कि हैजे की वजह से बिरसा मुंडा की मौत हो गई.

हालांकि, कई इतिहासकारों और आदिवासियों का मानना है कि अंग्रेज़ी हुकूमत ने उन्हें जेल में धीमा जहर दिया था, जिससे उनकी तबीयत बिगड़ती गई और उनकी मृत्यु हो गई.

25 की उम्र में अमर हुए ‘भगवान’ बिरसा
महज 25 साल की उम्र में दुनिया को अलविदा कहने वाले बिरसा मुंडा अपनी छोटी सी ज़िंदगी में इतना बड़ा संघर्ष करके गए कि आज भी वह भारत के जनजातीय समाज के लिए प्रेरणा के सबसे बड़े स्रोत हैं. उनका नारा ‘अबुआ दिसुम, अबुआ राज’ आज भी जंगल-ज़मीन के अधिकार की लड़ाई में एक मशाल की तरह जलता है. बिरसा मुंडा सही मायने में आदिवासियों के ‘भगवान’ और भारत के सच्चे ‘धरती आबा’ हैं.

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