शिमला: हिमाचल देवभूमि के साथ साथ मेले, त्योहारों का प्रदेश है. प्रदेश की वादियों में जितनी मोहक सुंदरता बसती है, उतनी ही गहराई यहां की लोक परंपराओं में भी झलकती है. ऐसे ही शिमला जिले से 30 किलोमीटर दूर धामी क्षेत्र में मनाया जाने वाला अनोखा पत्थर मेला, जो हर साल दीपावली के अगले दिन आयोजित होता है. ये मेला केवल एक उत्सव नहीं, बल्कि वो परंपरा है जो पीढ़ियों से चली आ रही है. ये आस्था और साहस का प्रतीक मानी जाती है. ऐसा मेला शायद ही कहीं और मनाया जाता हो.
इस मेले में एक दूसरे पर खूब पत्थर बरसाए जाते हैं. मेले में दो गुटों के बीच होने वाली पत्थरबाजी तब तक चलती है, जब तक किसी का खून जमीन पर न गिर जाए, जैसे ही किसी के रक्त की पहली बूंद जमीन पर गिरती है, मेले में पत्थरबाजी रुक जाती है. ये दृश्य जितना रोमांचक होता है, उतना ही आस्था से भरा भी.
इस मेले में पत्थर बरसाने की शुरुआत कब हुई इसकी सही तारीख तो किसी को नहीं मालूम, लेकिन इसकी शुरुआत कैसे हुई इसके बारे में साहित्यकार एस आर हरनोट बताते हैं कि ‘सैकड़ों साल पहले धामी रियासत में स्थित मां भीमाकाली के मंदिर में इलाके की सुख-शांति और राज परिवार के सुनहरे भविष्य के लिए मानव बलि दी जाती थी. धामी रियासत के राजा राणा की रानी इस मानव बलि के खिलाफ थी. राजा की मौत के बाद जब सती होने का फैसला लिया, तो उन्होंने नरबलि पर प्रतिबंध लगवा दिया था. इसके बाद यहां पशुबलि शुरू की गई. मान्यता है कि माता ने पशु बलि स्वीकार ना करने पर इस पत्थर के खेल की शुरुआत हुई जो आज भी चला आ रहा है.’
इस परंपरा को निभाने के लिए जिस जगह पर पत्थरों के खेल को खेला जाता है, उसे चौरा कहते हैं. यहीं पर बलि रुकवाने वाली रानी का (शारड़ा चौराहा) स्मारक भी बना है. इस मेले में पत्थर मारने वालों को खुंद कहते हैं. मेले वाले दिन सबसे पहले राज परिवार के सदस्य और राज पुरोहित भगवान श्री नरसिंह मंदिर में पूजा अर्चना करते हैं. उसके बाद ढोल-नगाड़ों के साथ हजारों लोग चौरा पर पहुंचते हैं. राज परिवार के साथ कटैड़ू और तुनड़ु, दगोई, जगोठी के खुंद कुल के होते हैं, जबकि दूसरी टोली में जमोगी खुंद के लोग शामिल होते हैं. दोनों टोलियां पूजा अर्चना करती हैं. राजपरिवार का सदस्य पत्थर फेंक कर खेल की शुरुआत करता है, उसके बाद दोनों टोलियों के बीच पत्थर का खेल शुरू होता हैं.